आदिवासी समुदाय का प्रकृति से रिश्ता एक सहअस्तित्व की पहचान है ! यह सहअस्तित्व ही परंपरागत खेती की आत्मा भी है, अगर एक संकट में होगा तो दूसरे का भविश्य भी दांव पर लग जायेगा ! अतः, इस रिश्ते को बनाये रखने के लिए एक संगठन का होना बहुत जरूरी है ! चूकि यहाँ की ज्यादातर आदिवासी उरांव समुदाय के हैं, इसीलिए संघठन पर उरांव संस्कृति की झलक दिखना स्वाभाविक है ! उरांव समुदाय बोल चाल के लिए मुख्यता कुड़ुख भाषा का प्रयोग करते हैं इसीलिए हमने सोचा की संघठन का नाम कुड़ुख भाषा में ही होना चाहिए ! ताकि, उरांव समुदाय की संस्कृति के साथ ही साथ उनकी भाषा का अस्तित्व भी बना रहे !
संघठन का नाम क्या होना चाहिए, यह काफी दुष्कर कार्य रहा ! दुष्कर इसलिए क्यूंकि उरांव समुदाय में कुड़ुख बोलने वाले तो बहुत हैं परन्तु कुड़ुख भाषा को पूर्ण रूप से लिखने, पढ़ने और समझने वाले बहुत ही कम हैं ! हम सभी चाहते थे कि संघठन का नाम ऐसा हो जो आदिवासी समाज और संस्कृति की संपूर्ण झलक का प्रतीक हो ! इसके परिणामस्वरूप दीदी लोग ने 'अयंग राजी' नाम का सुझाव दिया !
'अयंग राजी' एक कुड़ुख शब्द है जिसका अर्थ 'धरती माँ का राज्य ' है और ऐसा राज्य जिसे आदिवासी स्वतः ही स्वीकार करते हैं ! 'अयंग राजी' आदिवासी और प्रकृति के सहअस्तित्व की एक अमिट पहचान का रूप है ! 'अयंग राजी' एक दर्पण है जो आदिवासी को प्रकृति के महत्व को याद दिलाता रहेगा कि प्रकृति संरक्षण में ही आदिवासियों का जीवन निहित है ! परन्तु इस रिश्ते को बचाकर रखने के लिए आदिवासी समुदाय को अपने अंतर्मन में झांककर अपने सुनहरे अतीत को एक बार पुनः वर्तमान में जीवित करने की जरुरत है ! और सुनहरे अतीत को पुनर्जीवित करने के लिए हमने परंपरागत कृषि को माध्यम बनाया है ! परंपरागत कृषि ने ही आदिवासी और प्रकृति के सहअस्तित्व को बांधे रखने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है ! प्रकृति से जुड़े रहने का कृषि से बेहतर कोई विकल्प नहीं है ! आदिवासी प्रकृति पूजक भी हैं, उनके लगभग सभी त्योहार कृषि की विभिन्न फसलों से जुड़े हुए हैं ! उदहारण के लिए, कर्मा त्यौहार उरांव आदिवासी समुदाय का प्रमुख त्यौहार है ! कर्मा त्यौहार 'करम देवता' को समर्पित है और आदिवासी लोग 'करम वृक्ष' की शाखा जंगल से लेकर 'अखड़ा' में लगाकर 'करम देवता' को अच्छी फसल के लिए धन्यवाद देते हैं ! 'करम बृक्ष की शाखा' की पूजा मुख्यता 'हड़िया' से होती है ! हड़िया मुख्य रूप से चावल से 'रानू ' बनाकर और उसमें जंगल से लायी हुई कई सारी जड़ी-बूटियाँ मिलाकर बनाई जाती हैं ! इसीलिए, कृषि-जंगल-त्यौहार सभी आदिवासी समुदाय का प्रकृति से अटूट रिश्ता दर्शाता है !
'अयंग राजी' संघठन की दीदी लोगों के माध्यम से पता चला कि आदिवासी अपने दैनिक जीवन में बिभिन्न तरीके की आदिवासी व्यंजन भी खाते आ रहें हैं ! इनमें मुख्य रूप से पीठा, मड़ुआ की रोटी, महुआ के लड्डू, भोताल भात, मार-झोर, छिलका रोटी, फुटकल की चटनी, बेंग साग, सरला साग, हिरमिचिया साग, करील और महुआ का अचार आदि सम्मिलित हैं ! इन व्यंजनों को बनाने में जंगल से लाये हुए फल-फूल और साग-भाजी, और कृषि के माध्यम से पैदा किये गए धान, दाल और मड़ुआ-गोंडिली का बहुत महत्वपूर्ण योगदान रहता है ! रासायनिक कृषि के लगातार बढ़ते हुए प्रयोग से आदिवासी समुदाय का प्रकृति, जंगल और भूमि के बीच का रिश्ता टूटता जा रहा है ! इसी कारण से दैनिक जीवन में जंगल में मौजूद फल-फूल और साग-भाजी का उपभोग लगातार कम होता जा रहा है ! पीठा, छिलका रोटी आदि जैसे व्यंजनों को बनाने में ढेकी, जाता और सिल बट्टा का भी प्रयोग होता था; परन्तु आजकल इन परंपरागत मशीनो का उपयोग भी धीरे धीरे कम होता जा रहा है ! ढेकी का प्रयोग धान कूटने, चावल का आटा आदि बनाने में, जाता का उपयोग दाल कूटने में और मड़ुआ का आटा बनाने में और सिल-बट्टा का प्रयोग दाल आदि पीसने में होता है ! इन परंपरागत मशीनो के निरंतर उपयोग से आदिवासी लोगों का नित्य व्यायाम भी हो जाता था ! जैसे जैसे आदिवासी लोगों की जीवनचर्या और जीविकापार्जन के तरीकों में बदलाव आ रहा है, आदिवासी समुदाय के खान-पान, रहने के तौर-तरीके और संस्कृति बहुत तेजी से परिवर्तित हो रहे हैं !
रीझ-रंग: आदिवासी खान-पान और नाच-गाने का आयोजन
इन्ही कारणों से आदिवासी संस्कृति को बचाये रखने के उद्देश्य से हमने 'अयंग राजी' के माध्यम से परंपरागत कृषि को बढ़ावा देने के साथ साथ आदिवासी व्यंजनों के प्रचार प्रसार हेतु बिगत 13 मार्च को रायडीह फेडरेशन के सालाना महाधिवेशन के सुअवसर पर 'रीझ-रंग' का आयोजन किया ! आदिवासी संस्कृति में 'रीझ-रंग' का अर्थ एक ऐसे मेले से है जहाँ सभी लोग मिलकर खाना बनाना और नाच गाना करते हैं ! साथ ही हमने यह भी निर्णय लिया था कि 'रीझ-रंग' में उड़ीसा, झारखंड और छत्तीसगढ़ आदिवासी समुदाय के अलग अलग व्यंजन रहेंगे ! इसलिए हमने उड़ीसा से पायस, झारखण्ड से पीठा और छत्तीसगढ़ से रोज़ैल का शरबत बनाने का फैसला किया !
मार-झोर आदिवासी समुदाय का एक बहुत ही लज़ीज़ व्यंजन है जिसे बनाने के लिए सरला या सारू साग को उरद दाल की बड़ी के साथ चावल के माढ़ में उबाल कर बनाया जाता है और स्वाद अनुसार हलके मसाले में ही पकाया जाता है ! पीठा बनाने के लिए अरवा चावल का आटा, उरद दाल का पेस्ट लिया जाता है और चावल के आटे को गुझिया जैसा आकर देकर उसके अंदर उरद दाल के पेस्ट में हल्का नमक और हल्दी लगाकर भरा जाता है, इसके बाद पीठा को भाप में पकाया जाता है ! स्वाद के लिए उसमे पंचखोरन (पांच मसालों का मिश्रण) का तड़का लगाया जाता है ! पायस उड़ीसा के किचन का अनोखा स्वादिष्ट मिष्ठान है जिसे बनाने के लिए मुख्या रूप से दूध, घी, खोया, चीनी/गुड़ का प्रयोग किआ जाता है, परन्तु आदिवासी समुदाय इसे बनाने घी और खोया का उपयोग नहीं करते हैं ! रोज़ैल के फूलों को पहले धुप में सुखाया जाता है और फिर इन फूलों को रात भर पानी में भिगो दिया जाता है, अगली सुबह फूलों को पानी से अलग कर दिया जाता है ! पानी में स्वादानुसार काला नमक और चीनी मिलायी जाती है और इस तरह रोज़ैल का शरबत तैयार किया जाता है !
सभी व्यंजनों को बनाने का अनुभव भी बड़ा शानदार रहा, पीठ बनाने में दीदी लोगों ने पूर्ण सहयोग दिया और साथ साथ पीठा बनाने से जुड़ी कहानियां भी सुनाई ! स्वर्णिमा, लाली और आशुतोष के साथ सहयोग के बिना यह कार्य नामुमकिन था इसलिए इनको अनंत धन्यबाद ! हमारा इन सभी व्यनजनों का स्टाल लगाकर बेचने का अनुभव बहुत ही अनोखा रहा ! पीठा और रोज़ैल सर्वाधिक पसंद किये गए और पायस के कम पसंद किये जाने का मुख्य कारण आदिवासियों का दूध के प्रति अरुचि होना पाया गया ! कुछ आदिवासी दीदियों के अनुसार उनके पुराने दिनों की यादें पीठा खाकर एक बार फिर ताजा हो गयी और उन्होंने हमारे द्वारा यह सभी खाना बनाये जाने पर अत्यंत आशर्य व्यक्त किया ! कुल मिलाकर हमारा उद्देश्य लगभग सफल रहा ! अयंग राजी की दीदियों भी साभार धन्यबाद और उनके इन प्रयासों को हम लगातार प्रोत्साहित करते रहेंगे ! आने वाले समय में भी हम 'रीझ-रंग' जैसे कार्यक्रम और बड़े स्तर पर करने का प्रयास करेंगे !
द्वारा,
नीरज कपूर
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