उत्तर बस्तर कांकेर के विकास खंड दुर्गकोंदल में बसे ग्राम गोयन्दा का मैं निवासी हूँ। यहां बसे आदिवासी समाज के हमारे लोगों की रोज़ मर्रा ज़िंदगी एवं रीति रिवाज़ों में प्रकृति के संग गठे हमारे रिश्ते की झलक बखूबी दिखती है। इस लेख के साथ में अपने पाठक को आमंत्रित करता हूँ - आओ, जाने हम आदिवासी समाज के लोगों की अनूठी परम्पराओं को और उनमे गुथे हुए प्रकृति के साथ हमारे रिश्तों को। इस लेख के लिए मैंने 'गाँव बनऊमी' का पर्व चुना है। हिंदी में इसका अर्थ होता है 'गाँव बनाना' या फिर कह लें कि 'गाँव को बांधना'। मुझे उम्मीद है की इस पर्व की महत्वता के माध्यम से मैं अपने पाठक को अपने जीवन और अपनी सभ्यता का एक दृश्या दिखा सकूं।
आषाढ़ के माह में, बुवाई से पूर्व, मनाए जाने वाले इस पर्व 'गाँव बनऊमी' के समय बीजों की पूजा कि जाती है। इस मौके पर गांव की शीतला माता, ठाकुर दाई, भैसा सुर और खार में रहने वाले सभी पेन शक्ति (देव) को याद किया जाता है। उनसे आने वाले समय के लिए अच्छी फसल हेतु प्रार्थना कि जाती है। और इस पर्व के उपलक्ष्य पर अपने मुखिया और सयान जनो संग गाँव वाले अपने गाँव की सीमा की फेरी लगाते हैं। फेरी लगाने के साथ साथ सीमा ('सिवार') पर बसे अपने देवों को याद करते चलते हैं। इसी प्रक्रिया को लोग 'गाँव बनऊमी' कहते हैं जिसका मतलब है 'गाँव को बांधना'। इसीलिए गाँव के गायता और पटेल (मुखिया) की इस प्रक्रिया में अहम भूमिका होती है। गायता गाँव में बसे सबसे पहले परिवार की वंशावली से ही होते हैं। गाँव बांधने के इस उपलक्ष्य पर शीतला माता (गोंडी भाषा में 'ज़िम्मीदारीन') को ख़ास रूप से इसलिए भी याद किया जाता है क्योंकि शीतला किसी एक वर्ग या समाज के लोगों की नहीं हैं। वे तो पूरे गाँव की हैं। शीतला माता गाँव को बसाने वाले परिवार की पूर्वज मानी जाती हैं। गायता के नेतृत्व में शीतला को याद कर गाँव को बांधा जाता है। एक तरह से इस प्रक्रिया के माध्यम से गाँव के बड़े अपने छोटों को गाँव की सीमा बताते हैं और गाँव को बाँधने की ज़रुरत दर्शाते हैं।
इस पर्व के एक रोज़ पहले गाँव में 'पोलो' रखा जाता है। इस रोज़ गांव के लोग जंगल और खेत से सम्बंधित कोई भी काम नहीं करते। और गांव का गायता उपवास रखता है। दिन ढलते के साथ गांव के लोग शीतला माता के स्थान पर एकत्रित होते हैं और गायता को भोजन करवाते हैं। भोजन के पश्चात, एकत्रित लोग, रात भर के लिए शीतला के स्थान पर ही अपना डेरा जमाए रखते हैं। रात के मध्य में (लगभग तीन बजे के घने अंधेरे में) लोगों का यह डेरा शीतला के डांग देव को लेकर गांव भर में घूमता है और इसके साथ गाँव का बंधन करते हैं। इस दौरान सभी के मन में अच्छी फसल और अच्छी बारिश की कामना रहती है। सुबह होने के साथ ही गांव के मुखिया जंगल के घने हिस्सों में बसने वाली ठाकुर दाई के स्थान पर तेल, चांवल और हल्दी लेकर पहुंचते है। ठाकुर दाई का स्थान अधिकाँश साजा के वृक्ष तले ही होता है। साजा वृक्षों की हमारे रीतियों में ख़ास भूमिका रहती है और इसके पीछे एक ख़ास वजह है। हमारे यहां ऐसा मानते हैं कि बहुत लम्बे समय पहले हमारे पूर्वज घने जंगल में किन्ही मुसीबतों में फस गए थे। भीषण कोहराम मचा, आंधी आई, तूफ़ान चला, बादल गरजे और बिजलियाँ चमकी। इस मुश्किल समय में उन्हे साजा के वृक्षों के नीचे आसरा मिला। इसलिए हमारे लोग मानते हैं कि साजा के वृक्षों में बूढ़ा देव का वास है और मुश्किल के समय देव ने ही हमारे पूर्वजों को आसरा दिया। हम अपने देवों के विराजमान होने हेतु झूले भी साजा की लकड़ी से ही बनाते हैं। हमारे यहां साजा की सुरक्षा ख़ास रूप से की जाती है और ध्यान दिया जाता है कि साजा के वृक्षों को मानव से कोई हानी ना हो।
आषाढ़ के इसी समय साजा के नये पत्ते निकलने लगते है। ठाकुर दाई के इसी स्थान पर गाँव का गायता धान के बीजों को संजो के रखता है और सेवा जोहर के इस अवसर पर गाँव वालों को साजा के पत्तों से बने डोनो में धान के बीज वितरित करता है। इस वितरण के बाद ही साजा के पत्तों को गांव वाले अपने रोज़ मर्रा के काम में ले सकते हैं। इस पर्व से पहले गाँव वाले धान की बुवाई शुरू नहीं करते। अपने देवो को याद करे बिना हम अपने यहाँ बुवाई शुरू नहीं करते।
लेखक का परिचय - तेज कुमार पिद्दा उत्तर बस्तर कांकेर के निवासी हैं। सहभागी समाज सेवी संस्थान के साथ जुड़े हुए हैं और ग्रामीण क्षेत्रों में विकास सम्बंधित परियोजनाओं के लिये काम करते हैं। इस लेख से सम्बंधित जानकारी के लिए दुर्गकोंदल में बसे ग्राम सिवनी के निवासी श्री झाड़ू राम जी एवं ग्राम के पटेल रामू राम मंडावी जी का ख़ास योगदान रहा है।
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