इस न्यूज़लेटर या पत्रिका का नाम 'चिन्हारी: द यंग इंडिया' दिया गया है। ये नाम 'द यंग इंडिया' गाँधी जी के द्वारा लिखी गयी पत्रिका का भी हुआ करता था, जो 1919 से ले कर 1931 तक छापी गयी थी। यह पत्रिका गाँधी जी की विचारधाराओं से प्रेरित था।
इस पत्रिका के माध्यम से गाँधी जी भारत के नौजवानों को अहिंसक संघर्ष और अहिंसावादी आज़ाद देश की तरफ ले जाना चाहते थे। गाँधी जी की विचारधारा को लेकर काम कर रहे चिन्हारी के सदस्यों से मुझे प्रेरणा मिलती है। इससे उत्साहित होकर मैं आज गाँधी जी के 'कंस्ट्रक्टिव प्रोग्राम' या 'निर्माण का कार्य' के बारे में बात करना चाहूँगा। यह लेख गाँधी जी ने 1941 में लिखा और इस विचारधारा से जुड़ी सभी बातें, चर्चायें, धारणायें को वे एक साथ ले कर आयें। इस लेख में गाँधी जी सोचने की कोशिश करते हैं कि इस धरती, देश व गांव में निर्माण का कार्य कैसे किया जा सकता है। मैं दो तरह से निर्माण के कार्य के बारे में बात करना चाहूँगा, इस कार्य की एक प्रणाली से मैं फर्क दिखाना चाहूँगा और दूसरे से जोड़ना चाहूँगा। निर्माण के कार्य में मैं विरोध या विरोधता के साथ थोड़ा फर्क दिखाना चाहूँगा। विरोध से मैं विचार के विरोध की बात कर रहा हूँ|वह विरोध जो मात्र बौद्धिक रूप से किसी कार्य के साथ मतभेद रखता हो और सिर्फ सोच के माध्यम से बदलाव लाना चाहता हो। जो इस प्रकार का विरोध करते हैं वे चाहते हैं कि समाज बदले, मगर वे समाज को बदलने के लिए चाहे तो दिशा दिखाते हैं या उसकी अर्ज़ी देते हैं। जो निर्माण का कार्य करते हैं वे समाज को ध्यान लगा कर देखते हैं, समाज की समस्याओं पर गहराई से चिंतन करते हैं और कभी-कभी उसपर अनुसंधान भी करते हैं। एक वैद्य या डाक्टर की तरह वे देखते हैं कि शरीर में क्या तकलीफ़ है। यह जांच करने के बाद वे इस तकलीफ़ को दूर करने की कोशिश करते हैं, वे मरीज़ को दवाइयाँ देते हैं। यह शोध करने के बाद जो तकलीफ़ को मिटाने, हटाने या उस दशा में सुधार लाने की कोशिश करते हैं उन्हें हम निर्माण के कार्यकर्ता कह सकते हैं। इस भाव से चिन्हारी के सभी सदस्यों को हम निर्माण के कार्यकर्ता कह सकते हैं। तकलीफ़ों को दूर करते-करते कई बार नयी दिक्कतें भी आती हैं जैसे नयी दवा के कुछ दोष भाव होते हैं, उनका हमें ख्याल रखना पड़ता है। गाँधी जी ने ऐसा ही निर्माण का कार्य किया था, और एक बदलते देश का सपना देखा था। यह कार्य उनकी अहिंसा की सोच से जुड़ा है। उनका मानना था कि गांव के निर्माण का रास्ता पूर्ण रूप से अहिंसक ही होना चाहिए। निर्माण के कार्य का एक पथ रबीन्द्रनाथ टैगोर की विचारधाराओं में भी है जिसे वे पुनर्निर्माण कहते थे। इस पथ पर चल पाने के लिए हमें निर्माण और पुनर्निर्माण के बीच का रिश्ता और फर्क समझना होगा। जब टैगोर पुनर्निर्माण कहते हैं तो वे ये बात स्पष्ट करना चाहते हैं कि गांव में सभी चीज़ें ख़राब नहीं हैं। गांव में कुछ चीज़ें अच्छी हैं जिन्हें हमें संभाल कर रखना चाहिए और कुछ चीज़ें ऐसी हैं जिन्हें बदलने की ज़रूरत हैं। जैसे हमारे शहरों में भी कुछ चीज़ें अच्छी और कुछ ख़राब होती हैं। इसका ये मतलब है कि गांव में हम सभी चीज़ों को पुराना (पहले की चिंताएँ, जीवन प्रणाली, धाराएं आदि) समझ कर नहीं छोड़ सकते, बल्कि उसके ही ऊपर हम गांव के आगे का निर्माण कर पाएंगे। हमारे पूर्वजों की जीवन प्रणाली ही हमारे पुनर्निर्माण की नींव है। गाँधी के 'निर्माण' और टैगोर के पुनर्निर्माण के बीच एक रिश्ता बनाना बहुत ज़रूरी हैं। निर्माण के कार्यक्रम के अंदर ही पुनर्निर्माण का कार्य छुपा है और ऐसा ही पुनर्निर्माण का कार्य शायद चिन्हारी के सदस्य करने की कोशिश कर रहे हैं। चिन्हारी अपने क्षेत्र के भूत-काल से देसी बीज के ज्ञान और देसी खेती से जुड़े आदिवासी किसान के जीवन को वर्त्तमान में जीवित करने की कोशिश कर रहे हैं। साथ ही वे एक और निर्माण का कार्य कर रहे हैं जिसके बारे में गाँधी जी ने अपनी किताब 'कंस्ट्रक्टिव प्रोग्राम' के अध्याय 6 में लिखा है, जिसका नाम है 'स्वच्छता'। एक नयी बीमारी हमारे देश में छा रही है, शायद ब्रिटिश राज कुछ हद तक इसका ज़िम्मेदार है, जिससे हमारा मस्तिष्क और हमारे हाथों के बीच का रिश्ता टूट गया है, हमारी बुद्धि और हमारे श्रम को जोड़ने वाली कड़ी टूट गयी है। इस अलगाव की वजह से हम बुद्धि को ज़्यादा और श्रम को कम महत्व देने लगे हैं, जिसकी वजह से हम गांव और गांव के जीवन को भूलते जा रहे हैं, उससे दूर होते जा रहे हैं, अपने आप और अपनी सच्चाई से दूर होते जा रहे हैं। इस सब में सबसे भयानक बात यह है कि गांव में रहने वाले गांव को जल्द से जल्द इसे भूल जाना चाहते हैं। हम ये समझ नहीं पा रहे हैं कि गांव व अपने अतीत को भूल कर कोई देश आगे नहीं बढ़ पाया हैं, कोई समाज आगे नहीं बढ़ पाया है। इस बात का यह मतलब नहीं है कि हमारे अतीत में सभी कुछ ठीक था लेकिन हम अपने अतीत (गोंड-यादव-ताम्रकार-आदि समाज), पुराने जीवन यापन की प्रक्रियाओं, हमारे देसी बीज के ज्ञान को भूल कर निर्माण या पुनर्निर्माण का कार्य नहीं कर पाएंगे। गाँधी जी इसी बात को लोगों तक पहुंचाना चाहते थे और अलग-अलग माध्यम से वे ऐसा कर भी रहे थे। आशा है, चिन्हारी की ये पत्रिका भी दूर-दूर तक अपनी बातों को पहुंचा पायेंगे, क्योंकि वे गाँधी जी के सपने को साकार करने की कोशिश कर रहे हैं। वे साथ-साथ स्कूल जाते हैं और साथ ही श्रम भी करते हैं; वे हमारे समाज में पनपे हुए इस बुद्धि और श्रम के विभाजन को तोड़ने की कोशिश कर रहे हैं। वे बदले की भावना से बदलाव की भावना में गए, विरोध से पुनर्निर्माण में गए और गांव का ही नहीं जीवन का भी पुनर्निर्माण करने की कोशिश कर रहे। गाँधी जी भी गांव के जीवन को बचाना चाहते थे, और उसी दृष्टिकोण से उन्होंने इस किताब को लिखा था। गाँधी जी ने हमें यह रास्ता दिखाया कि सिर्फ सुधार नहीं हमें गांव और जीवन को सुन्दर बनाना है। मुझे लगता है, चिन्हारी ऐसा ही सुन्दर काम कर रहे हैं और इसीलिए उन्होंने खुद को 'द यंग इंडिया' कहा है। साथ ही मुझे उनकी कोशिशों पर विश्वास है, इसलिए मैं इस पत्रिका के हर प्रकाशन में गाँधी जी की इस किताब से एक अध्याय पे चर्चा करूँगा। इस बार मैंने निर्माण और पुनर्निर्माण, बदला और बदलाव, विरोध और विरोधता के बारे में बात किया। अगली बार मैं चिन्हारी के कार्य को देखते हुए इस किताब के किसी दूसरे भाग में चर्चा में लाऊंगा।
अनूप धर
अंबेडकर यूनिवर्सिटी, दिल्ली
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