उत्तर बस्तर कांकेर में निवास करने वाले आदिवासी समुदाय के जीवन में भीमादेव की एक ख़ास महत्वपूर्णता है। इस क्षेत्र के अधिकाँश लोग खेती से ही अपना जीवन बसर करते हैं। हर किसी के पास पानी का निजी साधन नहीं है। जैसी आदमी की अवस्था वैसी ही पानी की व्यवस्था। ऐसे में बारिश के मायने कुछ ख़ास हो जाते हैं। बारिश फिर मिटटी ही नहीं बल्कि गरम चूल्हे पे पकी रोटी की खुशबू भी लाती है। बारिश के इंतज़ार में बैठा आदमी अपनी भीतर की आस्थाओं की परीक्षा देता है। धरम कोई भी हो, पर करम से अपने, आदमी उम्मीद संजोना ही सीखता है।आदिवासी समुदाय में भी अपनी उम्मीदों को बांधे रखने के अपने तरीके हैं। यहां के हमारे लोग भीमादेव को याद करते हैं। जब खेत की मिटटी और उसपे खड़ी फसल पकने के लिए पानी का इंतज़ार करती है तब यहां के हमारे लोग अपने भीमादेव को याद करते है। हमारे यहां कहते हैं की जैसे हिन्दू धरम में इन्द्रदेव बारिश का प्रतीक हैं वैसे ही आदिवासी समाज में भीमादेव हैं। बारिश की ज़रुरत सबसे अधिक कुवार के महीने में होती है। इस समय हमारे आदिवासी साथी अपने भीमादेव को पानी बरसाने के लिए मनाते हैं।
गाँव में भीमादेव की ख़ास रूप से स्थापना भी की जाती हैं। इस स्थापना के लिए कुछ ख़ास पेड़ ही चुने जा सकते हैं। जैसे की सहजा, महुआ, पिपल या बरगद। इन पेड़ों के नीचे पत्थर के रूप में भीमादेव को स्थापित किया जाता हैं। कुवार माह में गाँव के सभी महिला एवं पुरुष इस स्थान पर एकत्रित होते हैं। नए कलश में पानी भरके इस स्थान के पास रखा जाता है और साथ में नए कपडे की गुन्डरी बना उसे स्थापना के स्थान पर रख दिया जाता है। एकत्रिक लोग भीमादेव को बुलावा देते हैं और मिलकर गीत गायन के साथ नाचते भी हैं। अपनी सेवा भीमादेव को प्रस्तुत करते हैं और उनसे पानी की मांग करते हैं। स्थापित भीमादेव में गोबर भी थोपा जाता है। लोगों का कहना है कि गोबर थोपने से भीमादेव को अच्छा नहीं लगता। और खुद को धोने के लिए भीमादेव पानी बरसा देते हैं। पानी बरसने तक गाँव भर के लोग भीमादेव को मानाने की अपनी मुहीम में लगे रहते हैं। अपनी उम्मीदों को बांधे रखते हैं। इस लेख के साथ मैं एक गीत भी प्रस्तुत कर रहा हूँ। इस गीत को ख़ास रूप से गाया जाता है। गीत के बोल कुछ इस तरह हैं -
"तोला जोहर लागे भीमा तोला जोहर लागे
सुट सुटी परेवा परेवा ऊपर सरेवा
भीमा लाजे घला निहे भीमा लाजे घला निहे भीमा
जिर्रा घला मरीस भीमा जिर्रा घला मरीस भीमा।"
छत्तीसगढ़ी में गाए हुए इस गीत के माध्यम से भीमादेव को कहा जा रहा है की पानी की कमी से खट्टी भाजी (छत्तीसगढ़ में उगने वाली प्रजाति जिसे आसाढ़ और माह में सब्ज़ी के रूप में पका के खाया जाता है) भी सूख के मर रही है। इस गीत में भीमादेव से विनती नहीं, जबाबदेही मांगी जा रहे है। उनसे पूछा जा रहा है की उनमे लज्जा की कोई गुंजाइश भी है? बहोत ना सही, सिर्फ फसल बचाने लायक पानी ही बरसा दें। भले एक तुमा (सूखी हुई लौकी जिसे पानी भरने के बर्तन की तरह काम लिया जाता है) भर पानी ही बरसा दें।
भीमादेव को साल भर में दो बार ख़ास रूप से याद किया जाता है। पहला पानी की लिए और दूसरा फागुन के समय। होली के समय 'महुआ जोगाय' (महुआ पीची) कार्यक्रम होता है। साल के इसी समय में महुआ के फूल भी निकलते हैं। जोगाय में नए महुआ के फूलों को पानी से भरे कलश में रखा जाता है। यह पानी भीमादेव को पिलाया जाता है। कहते हैं की इस तरह से भीमादेव को लोग अपनी सेवा देते हैं। भीमादेव की सेवा को इस समय सबसे अधिक प्राथमिक्ता दी जाती है। आदिवासी समुदाय में महुआ जोगाय कार्यक्रम के बाद ही नए महुआ के रस का सेवन किया जाता है। इस कार्यक्रम से पहले नए महुआ से रस नहीं बनाया जाता।
इस लेख के माध्यम से मैंने आदिवासी जीवन की एक छोटी से कड़ी आपके सामने प्रस्तुत की है। इस लेख के माध्यम से यहां के हमारे लोगों के जीवन और उनकी उम्मीदों की एक लिखित तस्वीर सी खींच दी है। मुझे आशा है की आपको यह लेख पसंद आएगा।
लेखक का परिचय - यह लेख बलीराम साहू द्वारा लिखा गया है। लेखक छत्तीसगढ़ के जिला उत्तर बस्तर कांकेर के निवासी हैं और सहभागी समाज सेवी संस्था के साथ जुड़े हुए हैं। बलीराम जी ग्रामीण क्षेत्रों में विकास से सम्बंधित परियोजनों के माध्यम से काम करते हैं। इस लेख को पाठक तक पहुंचाने में दिनेश कुमार कुड़बेर का ख़ास रूप से योगदान रहा है। इस लेख में प्रस्तुत गाने का चलचित्र भी पाठक के लिए उपलब्ध है। उत्तर बस्तर कांकेर के गाँव लिलवापहर की निवासी राम बाई कोर्राम जी ने चलचित्र में गायक की भूमिका निभाई है।
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