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praveenamahla92

महामारी के दौर में 'पढ़ाई' के बदलते मायने - कविता

आप सभी को मेरी ओर से नमस्ते ! मैं छत्तीसगढ़ में स्थित ब्लॉक नगरी (ग्राम कुकरेल) की निवासी हूँ। आप सभी को पता है कि कोरोना वायरस से फैली महामारी ने हम सभी का जीवन मुश्किल बना दिया है। मैं अपनी स्वयं की पहल से अपने और अपने आस पास के गाँव के बच्चों को पढ़ाती हूँ। इस महामारी के चलते मेरे आस पास के बच्चों की काफी पढ़ाई-लिखाई प्रभावित हुई। इसलिए मैंने यह कदम उठाने के बारे में सोचा। अतः मेरे लेख का विषय है कि मैं इस प्रभाव और अपनी छोटी सी कोशिश पर अपना चिंतन प्रस्तुत करूँ।


लॉक डाउन में बाकी सार्वजनिक स्थानों के साथ-साथ स्कूल भी बंद हुए। पूरा का पूरा पाठ्य क्रम ही अस्त व्यस्त हो गया। अब तक तो बच्चों की परिक्षा हो जानी चाहिये थी। पर हमारे शिक्षा विभाग ने परिस्थिती से लड़ने का हौसला दिखाया। जिला के शिक्षा विभाग ने लॉक डाउन में पढ़ाई जारी रखने के लिए नए तरीके निकाले। इन तरीकों में टेक्नोलॉजी की ख़ास भूमिका रही। जिसकी मदद से हमारे विभाग ने 'ऑनलाइन' कक्षाएं शुरू कि। जिससे कि पढ़ाई में कम से कम नुक्सान हो। सरकार के इस प्रयास में 'संयुक्त राष्ट्र बाल कोष' (UNICEF) की साझेदारी भी है। इस प्रयास को विभाग ने नाम दिया - 'सीख कार्यक्रम'। इस कार्यक्रम के अंतर्गत व्हाट्सप्प नामक मोबाइल एप्लीकेशन का उपयोग लिया जा रहा है। तो अब पढ़ाई करने के लिए गॉंव के बच्चों को चाहिए एक मोबाइल और साथ में इंटरनेट की सुविधा। बच्चों को इस माध्यम से पढ़ाने के लिए, गाँव के स्तर पर, एक स्वयं सेवक भी नियुक्त किया गया। कुकरेल के आस पास वाले गाँव के बच्चों के लिए स्वयं सेवक की भूमिका मैं निभाती हूँ। मुझे पढ़ाई का यह माध्यम मज़ेदार लगा। हम पढ़ाई के साथ मनोरंजक क्रियाएं भी करते हैं। जैसे की चित्र कला, आर्ट, कबाड़ से जुगाड़, मिस कॉल दो कहानी सुनो, आदि। इस तरह से हम अपनी रचनात्मक क्षमताओं को भी बढ़ा रहे हैं। मैंने गाँव में बच्चों का एक व्हाट्सप्प समूह बना दिया है। जिसमे हमारे शिक्षक लोग अपने घरों से ही बच्चों को पढ़ाई के साथ साथ अन्य गतिविधियां करवाते रहते हैं। गाँव में सभी के पास तो मोबाइल नहीं है तो जिनके पास यह साधन नहीं है वे अपने आस पड़ोस के बच्चों के साथ हमारे इस ऑनलाइन समूह से जुड़ जाते हैं।

पुनर्चक्रित वस्तुओं से बनाया हुआ 'सूर्य ग्रहण' का मॉडल


‘ब्रह्माण्ड के सिद्धांतों को समझने हेतु अपने हाथों से बनाए हुए 'सूर्य ग्रहण' मॉडल के साथ बच्चों की तस्वीर’

'सीख कार्यक्रम' के अथवा प्रथम फाउंडेशन के कर्मचारी भी हमारे गाँव के साथ जुड़े हुए हैं। उनका ख़ास ध्यान गणित एवं सामान्य ज्ञान पर रहता है। इसके साथ 'कोरोना: थोड़ा मस्ती थोड़ा पढ़ाई' के नाम से बच्चों को चित्र कला, रंगोली, कढ़ाई और पेपर आर्ट के लिए प्रोत्साहित किया जा रहा है। सबसे अच्छे कलात्मक काम को अखबार में भी छपाया जा रहा है। मैं पहले सिर्फ एक सदस्य थी इन व्हाट्सप्प समूहों पर, मगर अब मुझे बच्चों को पढ़ाने में रूचि है इसलिए मैंने अपने स्तर पर उनको पढ़ाने का प्रयत्न करना शुरू कर दिया। मेरी कोशिश को देख कर मुझे स्वयं सेविका की भूमिका दे दी गयी। स्वयं सेवक बनने के कुछ समय बाद हमारे समूह के बच्चों को सूर्य ग्रहण सम्बंधित एक मॉडल बनाने को दिया गया। हमे अपने घरों में पड़ी अनावश्यक वस्तुओं से इस मॉडल को बनाना था। बच्चों के साथ हमने इस मॉडल को सूर्य ग्रहण के दिन ही बनाया। अपने पाठकों के लिए तस्वीर इस लेख के साथ प्रस्तुत है। हमारा यह मॉडल हमारे गुरु जी को इतना पसंद आया कि अगले दिन के अखबार में हमारे इस मॉडल की तस्वीर छपी। हमारे बच्चों में बड़ा उत्साह मचा इस बात का। मेरा अपना मनोबल भी खूब बढ़ा, लगा कि मेरे प्रयासों का कुछ परिणाम दिखने लगा है। मैंने बच्चों को पढ़ना जारी रखा। फिर एक दिन मेरे गुरु जी ने बताया कि जिला स्तर से कुछ अधिकारी निरिक्षण करने आ रहे हैं। वे हमारे बच्चों के बनाए हुए मॉडल भी देखेंगे। खबर मिलने पर हमारे समूह के बच्चे सुबह साढ़े नौ बजे तैयार हो गए। कुछ आधा घंटा के विलम्भ के बाद निरीक्षण करने वाले अधिकारी हमारे गाँव में पहुंचे। बच्चे पढ़ाई के जुड़ा एक खेल खेल रहे थे जब अधिकारी हमारे गाँव पहुंचे। उस समय अधिकारियों के अभिनन्दन के लिए सिर्फ मैं ही मौजूद थी। मेरे साथ के स्वयं सेवक और गुरु जी उस समय उपस्थित नहीं थे। मुझे अकेला खड़ा देखा तो अधिकारी नाराज़ हुए। मुझ पर सवालों कि बौछार कर दी। मेरी सांस से लम्बे उनके सवाल और उनके ढेर सारे सवालों के सामने एक अकेली मैं। अचानक मुझे ऐसा लगा कि जैसे तीन बड़े अधिकारियों के सामने मेरे जबाब छोटे पड़ गए थे। मेरे जबाबों को बीच में काटते उनके सवालों से मेरे मनोबल को ठेस पहुँची। मुझे उन लम्हों में ऐसा लगा की मैंने व्यर्थ ही इतनी मेहनत कि। पर मैंने अपने जबाब पूरी ईमानदारी के साथ दिए। इस सिलसिले के चलते चलते दूसरे स्वयं सेवक भी वहाँ पहुंच गए। अधिकारियों ने भी अपना ध्यान मुझ से हटा कर बच्चों की तरफ केंद्रित किया। अब उन्होने बच्चों से सवाल पूछे। बच्चों के लिए जबाब देने मुश्किल नहीं थे तो बखूबी दे डाले। सच्ची मेहनत अपने प्रदर्शन का रास्ता खुद से ढून्ढ लेती है। बच्चों के जबाब सुन मुझे अच्छा लगा। कुछ लम्हों के मेरे टूटे मनोबल को अपना रास्ता फिर दिख गया। मुझे याद आ गया कि मैं यह काम क्यूँ करती हूँ। बच्चे इतने समझदार हो गए हैं, मुझे यह पता नहीं था। अधिकारियों का भी कुछ मिज़ाज़ बदला। उन्होंने बच्चों के लिए तालियां बजवाई। इस बीच सामने प्रदर्शित सूर्य ग्रहण के मॉडल पर वे नज़र नहीं डाल पाए, मेरी बहुत इक्छा थी कि वे हमारे मॉडल को देखें। कुछ कठिन सवाल, बच्चों के लिए शाबाशी और मॉडल को न देखते हुए ही वे अब किसी और गांव, किसी और शिक्षा केंद्र के लिए निकल गए।


'सूर्य ग्रहण' को समझाते हुए बच्चों का चलचित्र (विडिओ)'


कर्मचारियों के साथ इस बात-चीत के बाद मुझे एक प्रशिक्षण के लिए नगरी (ब्लॉक ऑफिस) बुलाया गया। अलग-अलग गांव और क्षेत्र से लोग आये थे वहां। एक बड़े से कमरे में हम सभी को बैठा कर हमारी CO नम्रता गाँधी जी ने हमें काम के बारे में बताया। उनका भाव मुझे अच्छा लगा, उन्होंने मुझसे बात भी कि जिससे मेरा आत्मविश्वास भी खूब बढ़ा। हड़बड़ाहट और घबराहट में मैं चिन्हारी कि मेरी और सहेलियों के बारे में उन्हें बताना भूल गयी। मगर अगली बार ज़रूर बताउंगी।

लेखक का परिचय - मैं वैसे तो भिलाई में एक क्रिस्चिन कॉलेज ऑफ़ इंजीनियरिंग एंड टेक्नोलॉजी (https://www.ccetbhilai.ac.in/) में पढ़ती हूँ, मगर लॉक डाउन की वजह से अभी अपने घर, अपने गांव में हूँ। मैं शायद इस गांव की पहली लड़की हूँ जो भिलाई जैसे शहर में जा कर इंजीनियरिंग कि पढाई कर रही है। मैंने यह कर पाने के लिए बहुत मेहनत कि और चिन्हारी की मदद से कॉलेज में दाखिला लिया। मेरे साथ के मेरे लोग और मेरे गुरु जी बच्चों को पढ़ने की मेरी कोशिश और मेहनत को सराहते हैं। मैं आगे भी अपना यह सिलसिला यूं ही जारी रखना चाहती हूँ। साथ ही आशा है कि आगे जा कर हमारे गांव मार्दापोटी से कई लड़कियां (और लड़के भी) बड़े बड़े कॉलेजों में पढ़ने जाएं, जीवन में बड़े और सुन्दर काम करें।




















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